Thursday 4 February 2016


#जिद न करो ।।
यूँ जहन्नुम तलक-ज़ीस्त उलझी पड़ी है ,
अब हसीं पल के इंतजाम की ज़िद न करो ।
जानता हूँ , तुझ बिन मसर्रत नहीं हैं घड़ियाँ ,
पर फिर से वो शाम लाने की जिद न करो ।।
न करो इबादतों का दौर फिर से शुरू,
फिर से अपना सबकुछ हार जाने की जिद न करो।
इसी सिलसिले में हुए हैं बर्बाद इस क़दर ,
बेहिसाब गहरा दरिया पार करने की जिद न करो ।।
मुहब्बत भी शब्-ए-तीरगी है सनम ,
इस तमी में ज़िया लाने की जिद न करो ।
इश्क़ तो अब भी बेहिसाब है तुमसे,
पर फिर से मीठे ज़रर की जिद न करो।।
ये ज़माना बड़ा जाबित है निर्ज़-जमीं की तरह ,
अब बे-तासीर मुहब्बत-ए-बरसात की जिद न करो ।
यूँ बिखरकर खुद को समेटना , मोजज़ा तो नही ,
चलो तो, सब्रोकरार की जिद न करो ।।
तेरे तबस्सुम से गुलशन हुआ करता था घराना,
फ़क़त दर्द में मुस्काने की जिद न करो ।
जला दिए हैं हमने ख़त जो तेरे इस्बात थे ,
उस ख़ाक को भी समेटने की ज़िद न करो ।।
मानो सनम,
उस उलझी शाम को पाने की जिद न करो ,
जो न है आश्ना, उसे फिर से लाने की जिद न करो ।
इश्क़ के समंदर में यूँ तूफ़ाँ बहुत आते हैं,
उसके साहिल पे मकां बनाने की ज़िद न करो ।।
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जीस्त-जिंदगी । मसर्रत-खुश ।
शब्-ए-तीरगी-अँधेरी रात ।
ज़िया-उजाला ।
ज़रर-घाव । जाबित -कठोर ।
निर्ज़-बंजर । बे-तासीर-व्यर्थ ।
मोजज़ा-जादू । तबस्सुम-मुस्काना ।

इस्बात-प्रमाण,तथ्य ।आश्ना-अपना ।


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